चुनाव में पार्टी जीती या स्कीम?
हिसाब किताब एक हफ्ते के ब्रेक के बाद वापस आ गया है. चुनाव में स्कीम की लड़ाई थी , इससे जनता को क्या जीत मिलेगी ?
एक हफ़्ते के ब्रेक के बाद हिसाब किताब लिख रहा हूँ. पिछले हफ़्ते चुनाव रिज़ल्ट की कवरेज के कारण लिखने का समय नहीं मिल पाया. इस हफ़्ते भी विषय पर अंतिम समय तक तय नहीं कर पाया कि क्या लिखा जाए?आख़िर में चुनाव रिज़ल्ट और गूगल के नए AI जैमिनी के बीच फ़ैसला करना था. चुनाव रिज़ल्ट को चुना कि क्या रेवड़ी बाँट कर कोई पार्टी चुनाव जीत सकती है? CSDS के डायरेक्टर संजय कुमार ने News Tak पर साप्ताहिक सभा में पिछले महीने कहा था कि इस बार चुनाव पार्टियाँ नहीं, स्कीम लड़ रही है. कांग्रेस और बीजेपी दोनों तरफ़ से स्कीम की होड़ मची हुई थी. हिसाब किताब में चर्चा स्कीम के बारे में
मध्यप्रदेश में लाड़ली बहना स्कीम की सबसे ज़्यादा चर्चा है. इस स्कीम में 1 करोड़ 30 लाख महिलाओं को हर महीने 1250 रुपये मिल रहे हैं. महिलाओं को 450 रुपये में गैस सिलेंडर मिल रहा है. कांग्रेस ने हर महीने 1500 रुपये देने का वादा किया था और 500 रुपये में सिलेंडर. महिलाओं ने बीजेपी को चुना. इंडिया टुडे My Axis के मुताबिक़ बीजेपी को महिलाओं ने 10% ज़्यादा वोट डाला जबकि पुरुषों में अंतर 2% था. महिलाओं ने बीजेपी की जीत पक्की कर दी. हालाँकि CSDS के पोस्ट पोल में कांग्रेस-बीजेपी में महिला वोट का अंतर 6% बताया गया है. किसानों को साल में 12 हज़ार रुपये दिया जा रहा है. स्कीम की लिस्ट लंबी है. राज्य सरकार पर 3 लाख 30 हज़ार करोड़ रुपये क़र्ज़ा है. चुनाव में इन घोषित स्कीम पर खर्च का अनुमान कम से कम 50 हज़ार करोड़ रुपये हैं.
स्कीम ने अगर चुनाव जिताया है तो फिर यही फ़ॉर्मूला राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में सरकारों के काम नहीं आया है. राजस्थान में कांग्रेस सरकार ने महंगाई राहत कैंप लगाएँ. गैस सिलेंडर 500 रुपये में देना शुरू किया. 100 यूनिट तक बिजली फ़्री कर दी. चिरंजीवी स्कीम के तहत हैल्थ इंश्योरेंस 25 लाख रुपये तक कर दिया. फिर भी सरकार लौट कर नहीं आयीं. छत्तीसगढ़ में किसानों से गोबर ख़रीदने और फसल पर ज़्यादा क़ीमत पहले से मिल रही थी. तेलंगाना ने पाँच साल पहले किसानों के खाते में पैसे ट्रांसफ़र करने की स्कीम चलाई थी. महिलाओं, बुजुर्गों सबके लिए स्कीम थी .कांग्रेस ने किसानों की राशि बढ़ा दी. महिलाओं को हर महीने कैश , सस्ता सिलेंडर, बस में मुफ़्त यात्रा जैसे वादे किए हैं.
श्रीलंका में सरकार का दीवाला निकलने के बाद पिछले साल हमारे यहाँ भी रेवड़ी पर चर्चा हुई थी. रिज़र्व बैंक ने चेतावनी दी थी कि ये रास्ता सरकारों को मुश्किल में डाल सकता है. बैंक का कहना था कि फ़्री में बाँटने में फ़र्क़ होना चाहिए कि क्या पब्लिक गुड या मेरिट के लिए है और क्या नहीं? सस्ता राशन, रोज़गार गारंटी, मुफ़्त शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च को सही ठहराया गया है या यूँ कहें कि ये रेवड़ी नहीं है. मुफ़्त बिजली, मुफ़्त पानी, मुफ़्त यात्रा , किसान क़र्ज़ माफ़ी को रेवड़ी माना गया है.
चुनाव में जीत- हार अपनी जगह है. जनता यह नहीं समझ नहीं पाती हैं कि सरकार जो भी मुफ़्त में दे रही है वो उसके जेब से वसूला जाता है.सारे सरकारें घाटे में चलती है यानी आमदनी कम होती है और खर्च ज़्यादा. घाटा क़ाबू में रखने के लिए आमदनी बढ़ाना पड़ती है यानी जनता पर ज़्यादा टैक्स लगता है या खर्च कम करना पड़ता है. सरकारों ने कुछ भी फ़्री कर दिया तो वो बंद करना मुश्किल होता है. इस कारण कटौती विकास के कामों में होती है जैसे स्कूल, अस्पताल, सड़क बनाना. इस के बाद भी सरकारों को क़र्ज़ लेना पड़ता है. ये क़र्ज़ भी सरकार के सालाना खर्च में जुड़ जाता है क्योंकि उसकी किस्त चुकाना पड़ती है. ये दुश्चक्र है. हम बाहर निकलने के बजाय इसमें फँसते जा रहे हैं. अंग्रेज़ी में इसीलिए कहावत हैं There is no such thing as a free lunch यानी कुछ भी फ़्री में नहीं मिलता है. हर मुफ़्त चीज़ की क़ीमत होती है जो हमें पता नहीं चलती है.
( ये इकनॉमी और बिज़नेस को समझने-समझाने की कोशिश है . हर रविवार सुबह हिसाब किताब छपता है . यहाँ छपे विचार मेरे अपने है और इंडिया टुडे ग्रुप से इसका कोई लेना देना नहीं है)


